CTET (Central Teacher Eligibility Test) is conducted every year to check the eligibility of teachers for primary and upper primary classes. The 16th edition of the Central Teacher Eligibility Test will be conducted in online mode this time.
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CTET 2022 Daily Practice Quiz 12: Hindi Language
1. निम्नलिखित प्रश्नों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और प्रश्नों के उत्तर देने के लिए उचित विकल्प का चयन कीजिए।
किसी आती हुई आपदा की भावना या दुख के कारण के साक्षात्कार से जो एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्तंभ-कारक मनोविकार होता है उसी को भय कहते हैं। क्रोध दुख के कारण पर प्रभाव डालने के लिए आकुल करता है और भय उसकी पहुँच से बाहर होने के लिए। क्रोध दुख के कारण के स्वरूपबोध के बिना नहीं होता। यदि दुख का कारण चेतन होगा और यह समझा जायगा कि उसने जान-बूझकर दुख पहुँचाया है, तभी क्रोध होगा। पर भय के लिए कारण का निर्दिष्ट होना जरूरी नहीं; इतना भर मालूम होना चाहिए कि दुख या हानि पहुँचेगी। यदि कोई ज्योतिषी किसी गँवार से कहे कि ”कल तुम्हारे हाथ-पाँव टूट जायँगे” तो उसे क्रोध न आएगा; भय होगा। पर उसी से यदि कोई दूसरा आकर कहे कि ”कल अमुक-अमुक तुम्हारे हाथ-पैर तोड़ देंगे” तो वह तुरंत त्योरी बदलकर कहेगा कि ”कौन हैं हाथ-पैर तोड़नेवाले? देख लूँगा।” भय का विषय दो रूपों में सामने आता है – असाध्य रूप में और साध्य रूप में। असाध्य विषय वह है जिसका किसी प्रयत्न द्वारा निवारण असंभव हो या असंभव समझ पड़े। साध्य विषय वह है जो प्रयत्न द्वारा दूर किया जा सकता हो। दो मनुष्य एक पहाड़ी नदी के किनारे बैठे या आनंद से बातचीत करते चले जा रहे थे। इतने में सामने शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी। यदि वे दोनों उठकर भागने, छिपने या पेड़ पर चढ़ने आदि का प्रयत्न करें तो बच सकते हैं। विषय के साध्य या असाध्य होने की धारणा परिस्थिति की विशेषता के अनुसार तो होती ही है पर बहुत कुछ मनुष्य की प्रकृति पर भी अवलंबित रहती है। क्लेश के कारण का ज्ञान होने पर उसकी अनिवार्यता का निश्चय अपनी विवशता या अक्षमता की अनुभूति के कारण होता है। यदि यह अनुभूति कठिनाइयों और आपत्तियों को दूर करने के अभ्यास या साहस के अभाव के कारण होती है, तो मनुष्य स्तंभित हो जाता है और उसके हाथ-पाँव नहीं हिल सकते। पर कड़े दिल का या साहसी आदमी पहले तो जल्दी डरता नहीं और डरता भी है तो सँभल कर अपने बचाव के उद्योग में लग जाता है। भय जब स्वभावगत हो जाता है तब कायरता या भीरुता कहलाता है और भारी दोष माना जाता है, विशेषतः पुरुषों में। स्त्रियों की भीरुता तो उनकी लज्जा के समान ही रसिकों के मनोरंजन की वस्तु रही है। पुरुषों की भीरुता की पूरी निंदा होती है। ऐसा जान पड़ता है कि बहुत पुराने जमाने से पुरुषों ने न डरने का ठेका ले रक्खा है। भीरुता के संयोजक अवयवों में क्लेश सहने की आवश्यकता और अपनी शक्ति का अविश्वास प्रधान है। शत्रु का सामना करने से भागने का अभिप्राय यही होता है कि भागनेवाला शारीरिक पीड़ा नहीं सह सकता तभी अपनी शक्ति के द्वारा उस पीड़ा से अपनी रक्षा का विश्वास नहीं रखता। यह तो बहुत पुरानी चाल की भीरुता हुई। जीवन के और अनेक व्यापारों में भी भीरुता दिखाई देती है। अर्थहानि के भय से बहुत से व्यापारी कभी-कभी किसी विशेष व्यवसाय में हाथ नहीं डालते, परास्त होने के भय से बहुत से पंडित कभी-कभी शास्त्रार्थ से मुँह चुराते हैं। इस प्रकार की भीरुता की तह में सहन करने की अक्षमता और अपनी शक्ति का अविश्वास छिपा रहता है। भीरु व्यापारी में अर्थहानि सहने की अक्षमता और अपने व्यवसाय कौशल पर अविश्वास तथा भीरु पंडित में मान-हानि सहने की अक्षमता और अपने विद्या-बुद्धि-बल पर अविश्वास निहित है। एक ही प्रकार की भीरुता ऐसी दिखाई पड़ती है जिसकी प्रशंसा होती है। वह धर्म-भीरुता है। पर हम तो उसे भी कोई बड़ी प्रशंसा की बात नहीं समझते। धर्म से डरनेवालों की अपेक्षा धर्म की ओर आकर्षित होनेवाले हमें अधिक धन्य जान पड़ते हैं। जो किसी बुराई से यही समझकर पीछे हटते हैं कि उसके करने से अधर्म होगा, उसकी अपेक्षा वे कहीं श्रेष्ठ हैं जिन्हें बुराई अच्छी ही नहीं लगती।
गद्यांश के अनुसार, दुख के कारण पर प्रभाव डालने के लिए कौन आकुल करता है?
(a) ईर्ष्या
(b) दया
(c) घृणा
(d) क्रोध
2. निम्नलिखित प्रश्नों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और प्रश्नों के उत्तर देने के लिए उचित विकल्प का चयन कीजिए।
किसी आती हुई आपदा की भावना या दुख के कारण के साक्षात्कार से जो एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्तंभ-कारक मनोविकार होता है उसी को भय कहते हैं। क्रोध दुख के कारण पर प्रभाव डालने के लिए आकुल करता है और भय उसकी पहुँच से बाहर होने के लिए। क्रोध दुख के कारण के स्वरूपबोध के बिना नहीं होता। यदि दुख का कारण चेतन होगा और यह समझा जायगा कि उसने जान-बूझकर दुख पहुँचाया है, तभी क्रोध होगा। पर भय के लिए कारण का निर्दिष्ट होना जरूरी नहीं; इतना भर मालूम होना चाहिए कि दुख या हानि पहुँचेगी। यदि कोई ज्योतिषी किसी गँवार से कहे कि ”कल तुम्हारे हाथ-पाँव टूट जायँगे” तो उसे क्रोध न आएगा; भय होगा। पर उसी से यदि कोई दूसरा आकर कहे कि ”कल अमुक-अमुक तुम्हारे हाथ-पैर तोड़ देंगे” तो वह तुरंत त्योरी बदलकर कहेगा कि ”कौन हैं हाथ-पैर तोड़नेवाले? देख लूँगा।” भय का विषय दो रूपों में सामने आता है – असाध्य रूप में और साध्य रूप में। असाध्य विषय वह है जिसका किसी प्रयत्न द्वारा निवारण असंभव हो या असंभव समझ पड़े। साध्य विषय वह है जो प्रयत्न द्वारा दूर किया जा सकता हो। दो मनुष्य एक पहाड़ी नदी के किनारे बैठे या आनंद से बातचीत करते चले जा रहे थे। इतने में सामने शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी। यदि वे दोनों उठकर भागने, छिपने या पेड़ पर चढ़ने आदि का प्रयत्न करें तो बच सकते हैं। विषय के साध्य या असाध्य होने की धारणा परिस्थिति की विशेषता के अनुसार तो होती ही है पर बहुत कुछ मनुष्य की प्रकृति पर भी अवलंबित रहती है। क्लेश के कारण का ज्ञान होने पर उसकी अनिवार्यता का निश्चय अपनी विवशता या अक्षमता की अनुभूति के कारण होता है। यदि यह अनुभूति कठिनाइयों और आपत्तियों को दूर करने के अभ्यास या साहस के अभाव के कारण होती है, तो मनुष्य स्तंभित हो जाता है और उसके हाथ-पाँव नहीं हिल सकते। पर कड़े दिल का या साहसी आदमी पहले तो जल्दी डरता नहीं और डरता भी है तो सँभल कर अपने बचाव के उद्योग में लग जाता है। भय जब स्वभावगत हो जाता है तब कायरता या भीरुता कहलाता है और भारी दोष माना जाता है, विशेषतः पुरुषों में। स्त्रियों की भीरुता तो उनकी लज्जा के समान ही रसिकों के मनोरंजन की वस्तु रही है। पुरुषों की भीरुता की पूरी निंदा होती है। ऐसा जान पड़ता है कि बहुत पुराने जमाने से पुरुषों ने न डरने का ठेका ले रक्खा है। भीरुता के संयोजक अवयवों में क्लेश सहने की आवश्यकता और अपनी शक्ति का अविश्वास प्रधान है। शत्रु का सामना करने से भागने का अभिप्राय यही होता है कि भागनेवाला शारीरिक पीड़ा नहीं सह सकता तभी अपनी शक्ति के द्वारा उस पीड़ा से अपनी रक्षा का विश्वास नहीं रखता। यह तो बहुत पुरानी चाल की भीरुता हुई। जीवन के और अनेक व्यापारों में भी भीरुता दिखाई देती है। अर्थहानि के भय से बहुत से व्यापारी कभी-कभी किसी विशेष व्यवसाय में हाथ नहीं डालते, परास्त होने के भय से बहुत से पंडित कभी-कभी शास्त्रार्थ से मुँह चुराते हैं। इस प्रकार की भीरुता की तह में सहन करने की अक्षमता और अपनी शक्ति का अविश्वास छिपा रहता है। भीरु व्यापारी में अर्थहानि सहने की अक्षमता और अपने व्यवसाय कौशल पर अविश्वास तथा भीरु पंडित में मान-हानि सहने की अक्षमता और अपने विद्या-बुद्धि-बल पर अविश्वास निहित है। एक ही प्रकार की भीरुता ऐसी दिखाई पड़ती है जिसकी प्रशंसा होती है। वह धर्म-भीरुता है। पर हम तो उसे भी कोई बड़ी प्रशंसा की बात नहीं समझते। धर्म से डरनेवालों की अपेक्षा धर्म की ओर आकर्षित होनेवाले हमें अधिक धन्य जान पड़ते हैं। जो किसी बुराई से यही समझकर पीछे हटते हैं कि उसके करने से अधर्म होगा, उसकी अपेक्षा वे कहीं श्रेष्ठ हैं जिन्हें बुराई अच्छी ही नहीं लगती।
गद्यांश के अनुसार, भय का विषय कितने रूपों में सामने आता है?
(a) दो
(b) तीन
(c) चार
(d) पांच
3. निम्नलिखित प्रश्नों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और प्रश्नों के उत्तर देने के लिए उचित विकल्प का चयन कीजिए।
किसी आती हुई आपदा की भावना या दुख के कारण के साक्षात्कार से जो एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्तंभ-कारक मनोविकार होता है उसी को भय कहते हैं। क्रोध दुख के कारण पर प्रभाव डालने के लिए आकुल करता है और भय उसकी पहुँच से बाहर होने के लिए। क्रोध दुख के कारण के स्वरूपबोध के बिना नहीं होता। यदि दुख का कारण चेतन होगा और यह समझा जायगा कि उसने जान-बूझकर दुख पहुँचाया है, तभी क्रोध होगा। पर भय के लिए कारण का निर्दिष्ट होना जरूरी नहीं; इतना भर मालूम होना चाहिए कि दुख या हानि पहुँचेगी। यदि कोई ज्योतिषी किसी गँवार से कहे कि ”कल तुम्हारे हाथ-पाँव टूट जायँगे” तो उसे क्रोध न आएगा; भय होगा। पर उसी से यदि कोई दूसरा आकर कहे कि ”कल अमुक-अमुक तुम्हारे हाथ-पैर तोड़ देंगे” तो वह तुरंत त्योरी बदलकर कहेगा कि ”कौन हैं हाथ-पैर तोड़नेवाले? देख लूँगा।” भय का विषय दो रूपों में सामने आता है – असाध्य रूप में और साध्य रूप में। असाध्य विषय वह है जिसका किसी प्रयत्न द्वारा निवारण असंभव हो या असंभव समझ पड़े। साध्य विषय वह है जो प्रयत्न द्वारा दूर किया जा सकता हो। दो मनुष्य एक पहाड़ी नदी के किनारे बैठे या आनंद से बातचीत करते चले जा रहे थे। इतने में सामने शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी। यदि वे दोनों उठकर भागने, छिपने या पेड़ पर चढ़ने आदि का प्रयत्न करें तो बच सकते हैं। विषय के साध्य या असाध्य होने की धारणा परिस्थिति की विशेषता के अनुसार तो होती ही है पर बहुत कुछ मनुष्य की प्रकृति पर भी अवलंबित रहती है। क्लेश के कारण का ज्ञान होने पर उसकी अनिवार्यता का निश्चय अपनी विवशता या अक्षमता की अनुभूति के कारण होता है। यदि यह अनुभूति कठिनाइयों और आपत्तियों को दूर करने के अभ्यास या साहस के अभाव के कारण होती है, तो मनुष्य स्तंभित हो जाता है और उसके हाथ-पाँव नहीं हिल सकते। पर कड़े दिल का या साहसी आदमी पहले तो जल्दी डरता नहीं और डरता भी है तो सँभल कर अपने बचाव के उद्योग में लग जाता है। भय जब स्वभावगत हो जाता है तब कायरता या भीरुता कहलाता है और भारी दोष माना जाता है, विशेषतः पुरुषों में। स्त्रियों की भीरुता तो उनकी लज्जा के समान ही रसिकों के मनोरंजन की वस्तु रही है। पुरुषों की भीरुता की पूरी निंदा होती है। ऐसा जान पड़ता है कि बहुत पुराने जमाने से पुरुषों ने न डरने का ठेका ले रक्खा है। भीरुता के संयोजक अवयवों में क्लेश सहने की आवश्यकता और अपनी शक्ति का अविश्वास प्रधान है। शत्रु का सामना करने से भागने का अभिप्राय यही होता है कि भागनेवाला शारीरिक पीड़ा नहीं सह सकता तभी अपनी शक्ति के द्वारा उस पीड़ा से अपनी रक्षा का विश्वास नहीं रखता। यह तो बहुत पुरानी चाल की भीरुता हुई। जीवन के और अनेक व्यापारों में भी भीरुता दिखाई देती है। अर्थहानि के भय से बहुत से व्यापारी कभी-कभी किसी विशेष व्यवसाय में हाथ नहीं डालते, परास्त होने के भय से बहुत से पंडित कभी-कभी शास्त्रार्थ से मुँह चुराते हैं। इस प्रकार की भीरुता की तह में सहन करने की अक्षमता और अपनी शक्ति का अविश्वास छिपा रहता है। भीरु व्यापारी में अर्थहानि सहने की अक्षमता और अपने व्यवसाय कौशल पर अविश्वास तथा भीरु पंडित में मान-हानि सहने की अक्षमता और अपने विद्या-बुद्धि-बल पर अविश्वास निहित है। एक ही प्रकार की भीरुता ऐसी दिखाई पड़ती है जिसकी प्रशंसा होती है। वह धर्म-भीरुता है। पर हम तो उसे भी कोई बड़ी प्रशंसा की बात नहीं समझते। धर्म से डरनेवालों की अपेक्षा धर्म की ओर आकर्षित होनेवाले हमें अधिक धन्य जान पड़ते हैं। जो किसी बुराई से यही समझकर पीछे हटते हैं कि उसके करने से अधर्म होगा, उसकी अपेक्षा वे कहीं श्रेष्ठ हैं जिन्हें बुराई अच्छी ही नहीं लगती।
वह विषय कौन सा है, जो प्रयत्न द्वारा दूर किया जा सकता हो।
(a) असाध्य विषय
(b) भीरुता विषय
(c) साध्य विषय
(d) साहस विषय
4. निम्नलिखित प्रश्नों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और प्रश्नों के उत्तर देने के लिए उचित विकल्प का चयन कीजिए।
किसी आती हुई आपदा की भावना या दुख के कारण के साक्षात्कार से जो एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्तंभ-कारक मनोविकार होता है उसी को भय कहते हैं। क्रोध दुख के कारण पर प्रभाव डालने के लिए आकुल करता है और भय उसकी पहुँच से बाहर होने के लिए। क्रोध दुख के कारण के स्वरूपबोध के बिना नहीं होता। यदि दुख का कारण चेतन होगा और यह समझा जायगा कि उसने जान-बूझकर दुख पहुँचाया है, तभी क्रोध होगा। पर भय के लिए कारण का निर्दिष्ट होना जरूरी नहीं; इतना भर मालूम होना चाहिए कि दुख या हानि पहुँचेगी। यदि कोई ज्योतिषी किसी गँवार से कहे कि ”कल तुम्हारे हाथ-पाँव टूट जायँगे” तो उसे क्रोध न आएगा; भय होगा। पर उसी से यदि कोई दूसरा आकर कहे कि ”कल अमुक-अमुक तुम्हारे हाथ-पैर तोड़ देंगे” तो वह तुरंत त्योरी बदलकर कहेगा कि ”कौन हैं हाथ-पैर तोड़नेवाले? देख लूँगा।” भय का विषय दो रूपों में सामने आता है – असाध्य रूप में और साध्य रूप में। असाध्य विषय वह है जिसका किसी प्रयत्न द्वारा निवारण असंभव हो या असंभव समझ पड़े। साध्य विषय वह है जो प्रयत्न द्वारा दूर किया जा सकता हो। दो मनुष्य एक पहाड़ी नदी के किनारे बैठे या आनंद से बातचीत करते चले जा रहे थे। इतने में सामने शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी। यदि वे दोनों उठकर भागने, छिपने या पेड़ पर चढ़ने आदि का प्रयत्न करें तो बच सकते हैं। विषय के साध्य या असाध्य होने की धारणा परिस्थिति की विशेषता के अनुसार तो होती ही है पर बहुत कुछ मनुष्य की प्रकृति पर भी अवलंबित रहती है। क्लेश के कारण का ज्ञान होने पर उसकी अनिवार्यता का निश्चय अपनी विवशता या अक्षमता की अनुभूति के कारण होता है। यदि यह अनुभूति कठिनाइयों और आपत्तियों को दूर करने के अभ्यास या साहस के अभाव के कारण होती है, तो मनुष्य स्तंभित हो जाता है और उसके हाथ-पाँव नहीं हिल सकते। पर कड़े दिल का या साहसी आदमी पहले तो जल्दी डरता नहीं और डरता भी है तो सँभल कर अपने बचाव के उद्योग में लग जाता है। भय जब स्वभावगत हो जाता है तब कायरता या भीरुता कहलाता है और भारी दोष माना जाता है, विशेषतः पुरुषों में। स्त्रियों की भीरुता तो उनकी लज्जा के समान ही रसिकों के मनोरंजन की वस्तु रही है। पुरुषों की भीरुता की पूरी निंदा होती है। ऐसा जान पड़ता है कि बहुत पुराने जमाने से पुरुषों ने न डरने का ठेका ले रक्खा है। भीरुता के संयोजक अवयवों में क्लेश सहने की आवश्यकता और अपनी शक्ति का अविश्वास प्रधान है। शत्रु का सामना करने से भागने का अभिप्राय यही होता है कि भागनेवाला शारीरिक पीड़ा नहीं सह सकता तभी अपनी शक्ति के द्वारा उस पीड़ा से अपनी रक्षा का विश्वास नहीं रखता। यह तो बहुत पुरानी चाल की भीरुता हुई। जीवन के और अनेक व्यापारों में भी भीरुता दिखाई देती है। अर्थहानि के भय से बहुत से व्यापारी कभी-कभी किसी विशेष व्यवसाय में हाथ नहीं डालते, परास्त होने के भय से बहुत से पंडित कभी-कभी शास्त्रार्थ से मुँह चुराते हैं। इस प्रकार की भीरुता की तह में सहन करने की अक्षमता और अपनी शक्ति का अविश्वास छिपा रहता है। भीरु व्यापारी में अर्थहानि सहने की अक्षमता और अपने व्यवसाय कौशल पर अविश्वास तथा भीरु पंडित में मान-हानि सहने की अक्षमता और अपने विद्या-बुद्धि-बल पर अविश्वास निहित है। एक ही प्रकार की भीरुता ऐसी दिखाई पड़ती है जिसकी प्रशंसा होती है। वह धर्म-भीरुता है। पर हम तो उसे भी कोई बड़ी प्रशंसा की बात नहीं समझते। धर्म से डरनेवालों की अपेक्षा धर्म की ओर आकर्षित होनेवाले हमें अधिक धन्य जान पड़ते हैं। जो किसी बुराई से यही समझकर पीछे हटते हैं कि उसके करने से अधर्म होगा, उसकी अपेक्षा वे कहीं श्रेष्ठ हैं जिन्हें बुराई अच्छी ही नहीं लगती।
गद्यांश के अनुसार, कैसा व्यक्ति पहले तो जल्दी डरता नहीं और डरता भी है तो सँभल कर अपने बचाव के उद्योग में लग जाता है?
(a) कर्मठ व्यक्ति
(b) आलसी व्यक्ति
(c) साहसी व्यक्ति
(d) भीरु व्यक्ति
5. निम्नलिखित प्रश्नों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और प्रश्नों के उत्तर देने के लिए उचित विकल्प का चयन कीजिए।
किसी आती हुई आपदा की भावना या दुख के कारण के साक्षात्कार से जो एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्तंभ-कारक मनोविकार होता है उसी को भय कहते हैं। क्रोध दुख के कारण पर प्रभाव डालने के लिए आकुल करता है और भय उसकी पहुँच से बाहर होने के लिए। क्रोध दुख के कारण के स्वरूपबोध के बिना नहीं होता। यदि दुख का कारण चेतन होगा और यह समझा जायगा कि उसने जान-बूझकर दुख पहुँचाया है, तभी क्रोध होगा। पर भय के लिए कारण का निर्दिष्ट होना जरूरी नहीं; इतना भर मालूम होना चाहिए कि दुख या हानि पहुँचेगी। यदि कोई ज्योतिषी किसी गँवार से कहे कि ”कल तुम्हारे हाथ-पाँव टूट जायँगे” तो उसे क्रोध न आएगा; भय होगा। पर उसी से यदि कोई दूसरा आकर कहे कि ”कल अमुक-अमुक तुम्हारे हाथ-पैर तोड़ देंगे” तो वह तुरंत त्योरी बदलकर कहेगा कि ”कौन हैं हाथ-पैर तोड़नेवाले? देख लूँगा।” भय का विषय दो रूपों में सामने आता है – असाध्य रूप में और साध्य रूप में। असाध्य विषय वह है जिसका किसी प्रयत्न द्वारा निवारण असंभव हो या असंभव समझ पड़े। साध्य विषय वह है जो प्रयत्न द्वारा दूर किया जा सकता हो। दो मनुष्य एक पहाड़ी नदी के किनारे बैठे या आनंद से बातचीत करते चले जा रहे थे। इतने में सामने शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी। यदि वे दोनों उठकर भागने, छिपने या पेड़ पर चढ़ने आदि का प्रयत्न करें तो बच सकते हैं। विषय के साध्य या असाध्य होने की धारणा परिस्थिति की विशेषता के अनुसार तो होती ही है पर बहुत कुछ मनुष्य की प्रकृति पर भी अवलंबित रहती है। क्लेश के कारण का ज्ञान होने पर उसकी अनिवार्यता का निश्चय अपनी विवशता या अक्षमता की अनुभूति के कारण होता है। यदि यह अनुभूति कठिनाइयों और आपत्तियों को दूर करने के अभ्यास या साहस के अभाव के कारण होती है, तो मनुष्य स्तंभित हो जाता है और उसके हाथ-पाँव नहीं हिल सकते। पर कड़े दिल का या साहसी आदमी पहले तो जल्दी डरता नहीं और डरता भी है तो सँभल कर अपने बचाव के उद्योग में लग जाता है। भय जब स्वभावगत हो जाता है तब कायरता या भीरुता कहलाता है और भारी दोष माना जाता है, विशेषतः पुरुषों में। स्त्रियों की भीरुता तो उनकी लज्जा के समान ही रसिकों के मनोरंजन की वस्तु रही है। पुरुषों की भीरुता की पूरी निंदा होती है। ऐसा जान पड़ता है कि बहुत पुराने जमाने से पुरुषों ने न डरने का ठेका ले रक्खा है। भीरुता के संयोजक अवयवों में क्लेश सहने की आवश्यकता और अपनी शक्ति का अविश्वास प्रधान है। शत्रु का सामना करने से भागने का अभिप्राय यही होता है कि भागनेवाला शारीरिक पीड़ा नहीं सह सकता तभी अपनी शक्ति के द्वारा उस पीड़ा से अपनी रक्षा का विश्वास नहीं रखता। यह तो बहुत पुरानी चाल की भीरुता हुई। जीवन के और अनेक व्यापारों में भी भीरुता दिखाई देती है। अर्थहानि के भय से बहुत से व्यापारी कभी-कभी किसी विशेष व्यवसाय में हाथ नहीं डालते, परास्त होने के भय से बहुत से पंडित कभी-कभी शास्त्रार्थ से मुँह चुराते हैं। इस प्रकार की भीरुता की तह में सहन करने की अक्षमता और अपनी शक्ति का अविश्वास छिपा रहता है। भीरु व्यापारी में अर्थहानि सहने की अक्षमता और अपने व्यवसाय कौशल पर अविश्वास तथा भीरु पंडित में मान-हानि सहने की अक्षमता और अपने विद्या-बुद्धि-बल पर अविश्वास निहित है। एक ही प्रकार की भीरुता ऐसी दिखाई पड़ती है जिसकी प्रशंसा होती है। वह धर्म-भीरुता है। पर हम तो उसे भी कोई बड़ी प्रशंसा की बात नहीं समझते। धर्म से डरनेवालों की अपेक्षा धर्म की ओर आकर्षित होनेवाले हमें अधिक धन्य जान पड़ते हैं। जो किसी बुराई से यही समझकर पीछे हटते हैं कि उसके करने से अधर्म होगा, उसकी अपेक्षा वे कहीं श्रेष्ठ हैं जिन्हें बुराई अच्छी ही नहीं लगती।
भय जब स्वभावगत हो जाता है तब कायरता या भीरुता कहलाता है, तब यह विशेषत: किसमे भारी दोष माना जाता है?
(a) राजा में,
(b) साहूकारों में,
(c) महिलाओं में,
(d) पुरुषों में,
6. निम्नलिखित प्रश्नों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और प्रश्नों के उत्तर देने के लिए उचित विकल्प का चयन कीजिए।
किसी आती हुई आपदा की भावना या दुख के कारण के साक्षात्कार से जो एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्तंभ-कारक मनोविकार होता है उसी को भय कहते हैं। क्रोध दुख के कारण पर प्रभाव डालने के लिए आकुल करता है और भय उसकी पहुँच से बाहर होने के लिए। क्रोध दुख के कारण के स्वरूपबोध के बिना नहीं होता। यदि दुख का कारण चेतन होगा और यह समझा जायगा कि उसने जान-बूझकर दुख पहुँचाया है, तभी क्रोध होगा। पर भय के लिए कारण का निर्दिष्ट होना जरूरी नहीं; इतना भर मालूम होना चाहिए कि दुख या हानि पहुँचेगी। यदि कोई ज्योतिषी किसी गँवार से कहे कि ”कल तुम्हारे हाथ-पाँव टूट जायँगे” तो उसे क्रोध न आएगा; भय होगा। पर उसी से यदि कोई दूसरा आकर कहे कि ”कल अमुक-अमुक तुम्हारे हाथ-पैर तोड़ देंगे” तो वह तुरंत त्योरी बदलकर कहेगा कि ”कौन हैं हाथ-पैर तोड़नेवाले? देख लूँगा।” भय का विषय दो रूपों में सामने आता है – असाध्य रूप में और साध्य रूप में। असाध्य विषय वह है जिसका किसी प्रयत्न द्वारा निवारण असंभव हो या असंभव समझ पड़े। साध्य विषय वह है जो प्रयत्न द्वारा दूर किया जा सकता हो। दो मनुष्य एक पहाड़ी नदी के किनारे बैठे या आनंद से बातचीत करते चले जा रहे थे। इतने में सामने शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी। यदि वे दोनों उठकर भागने, छिपने या पेड़ पर चढ़ने आदि का प्रयत्न करें तो बच सकते हैं। विषय के साध्य या असाध्य होने की धारणा परिस्थिति की विशेषता के अनुसार तो होती ही है पर बहुत कुछ मनुष्य की प्रकृति पर भी अवलंबित रहती है। क्लेश के कारण का ज्ञान होने पर उसकी अनिवार्यता का निश्चय अपनी विवशता या अक्षमता की अनुभूति के कारण होता है। यदि यह अनुभूति कठिनाइयों और आपत्तियों को दूर करने के अभ्यास या साहस के अभाव के कारण होती है, तो मनुष्य स्तंभित हो जाता है और उसके हाथ-पाँव नहीं हिल सकते। पर कड़े दिल का या साहसी आदमी पहले तो जल्दी डरता नहीं और डरता भी है तो सँभल कर अपने बचाव के उद्योग में लग जाता है। भय जब स्वभावगत हो जाता है तब कायरता या भीरुता कहलाता है और भारी दोष माना जाता है, विशेषतः पुरुषों में। स्त्रियों की भीरुता तो उनकी लज्जा के समान ही रसिकों के मनोरंजन की वस्तु रही है। पुरुषों की भीरुता की पूरी निंदा होती है। ऐसा जान पड़ता है कि बहुत पुराने जमाने से पुरुषों ने न डरने का ठेका ले रक्खा है। भीरुता के संयोजक अवयवों में क्लेश सहने की आवश्यकता और अपनी शक्ति का अविश्वास प्रधान है। शत्रु का सामना करने से भागने का अभिप्राय यही होता है कि भागनेवाला शारीरिक पीड़ा नहीं सह सकता तभी अपनी शक्ति के द्वारा उस पीड़ा से अपनी रक्षा का विश्वास नहीं रखता। यह तो बहुत पुरानी चाल की भीरुता हुई। जीवन के और अनेक व्यापारों में भी भीरुता दिखाई देती है। अर्थहानि के भय से बहुत से व्यापारी कभी-कभी किसी विशेष व्यवसाय में हाथ नहीं डालते, परास्त होने के भय से बहुत से पंडित कभी-कभी शास्त्रार्थ से मुँह चुराते हैं। इस प्रकार की भीरुता की तह में सहन करने की अक्षमता और अपनी शक्ति का अविश्वास छिपा रहता है। भीरु व्यापारी में अर्थहानि सहने की अक्षमता और अपने व्यवसाय कौशल पर अविश्वास तथा भीरु पंडित में मान-हानि सहने की अक्षमता और अपने विद्या-बुद्धि-बल पर अविश्वास निहित है। एक ही प्रकार की भीरुता ऐसी दिखाई पड़ती है जिसकी प्रशंसा होती है। वह धर्म-भीरुता है। पर हम तो उसे भी कोई बड़ी प्रशंसा की बात नहीं समझते। धर्म से डरनेवालों की अपेक्षा धर्म की ओर आकर्षित होनेवाले हमें अधिक धन्य जान पड़ते हैं। जो किसी बुराई से यही समझकर पीछे हटते हैं कि उसके करने से अधर्म होगा, उसकी अपेक्षा वे कहीं श्रेष्ठ हैं जिन्हें बुराई अच्छी ही नहीं लगती।
गद्यांश के अनुसार, किसकी भीरुता की पूरी निंदा होती है?
(a) क्षत्रियों की भीरुता
(b) राजाओं की भीरुता
(c) पुरुषों की भीरुता
(d) किशोरों की भीरुता
7. निम्नलिखित प्रश्नों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और प्रश्नों के उत्तर देने के लिए उचित विकल्प का चयन कीजिए।
किसी आती हुई आपदा की भावना या दुख के कारण के साक्षात्कार से जो एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्तंभ-कारक मनोविकार होता है उसी को भय कहते हैं। क्रोध दुख के कारण पर प्रभाव डालने के लिए आकुल करता है और भय उसकी पहुँच से बाहर होने के लिए। क्रोध दुख के कारण के स्वरूपबोध के बिना नहीं होता। यदि दुख का कारण चेतन होगा और यह समझा जायगा कि उसने जान-बूझकर दुख पहुँचाया है, तभी क्रोध होगा। पर भय के लिए कारण का निर्दिष्ट होना जरूरी नहीं; इतना भर मालूम होना चाहिए कि दुख या हानि पहुँचेगी। यदि कोई ज्योतिषी किसी गँवार से कहे कि ”कल तुम्हारे हाथ-पाँव टूट जायँगे” तो उसे क्रोध न आएगा; भय होगा। पर उसी से यदि कोई दूसरा आकर कहे कि ”कल अमुक-अमुक तुम्हारे हाथ-पैर तोड़ देंगे” तो वह तुरंत त्योरी बदलकर कहेगा कि ”कौन हैं हाथ-पैर तोड़नेवाले? देख लूँगा।” भय का विषय दो रूपों में सामने आता है – असाध्य रूप में और साध्य रूप में। असाध्य विषय वह है जिसका किसी प्रयत्न द्वारा निवारण असंभव हो या असंभव समझ पड़े। साध्य विषय वह है जो प्रयत्न द्वारा दूर किया जा सकता हो। दो मनुष्य एक पहाड़ी नदी के किनारे बैठे या आनंद से बातचीत करते चले जा रहे थे। इतने में सामने शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी। यदि वे दोनों उठकर भागने, छिपने या पेड़ पर चढ़ने आदि का प्रयत्न करें तो बच सकते हैं। विषय के साध्य या असाध्य होने की धारणा परिस्थिति की विशेषता के अनुसार तो होती ही है पर बहुत कुछ मनुष्य की प्रकृति पर भी अवलंबित रहती है। क्लेश के कारण का ज्ञान होने पर उसकी अनिवार्यता का निश्चय अपनी विवशता या अक्षमता की अनुभूति के कारण होता है। यदि यह अनुभूति कठिनाइयों और आपत्तियों को दूर करने के अभ्यास या साहस के अभाव के कारण होती है, तो मनुष्य स्तंभित हो जाता है और उसके हाथ-पाँव नहीं हिल सकते। पर कड़े दिल का या साहसी आदमी पहले तो जल्दी डरता नहीं और डरता भी है तो सँभल कर अपने बचाव के उद्योग में लग जाता है। भय जब स्वभावगत हो जाता है तब कायरता या भीरुता कहलाता है और भारी दोष माना जाता है, विशेषतः पुरुषों में। स्त्रियों की भीरुता तो उनकी लज्जा के समान ही रसिकों के मनोरंजन की वस्तु रही है। पुरुषों की भीरुता की पूरी निंदा होती है। ऐसा जान पड़ता है कि बहुत पुराने जमाने से पुरुषों ने न डरने का ठेका ले रक्खा है। भीरुता के संयोजक अवयवों में क्लेश सहने की आवश्यकता और अपनी शक्ति का अविश्वास प्रधान है। शत्रु का सामना करने से भागने का अभिप्राय यही होता है कि भागनेवाला शारीरिक पीड़ा नहीं सह सकता तभी अपनी शक्ति के द्वारा उस पीड़ा से अपनी रक्षा का विश्वास नहीं रखता। यह तो बहुत पुरानी चाल की भीरुता हुई। जीवन के और अनेक व्यापारों में भी भीरुता दिखाई देती है। अर्थहानि के भय से बहुत से व्यापारी कभी-कभी किसी विशेष व्यवसाय में हाथ नहीं डालते, परास्त होने के भय से बहुत से पंडित कभी-कभी शास्त्रार्थ से मुँह चुराते हैं। इस प्रकार की भीरुता की तह में सहन करने की अक्षमता और अपनी शक्ति का अविश्वास छिपा रहता है। भीरु व्यापारी में अर्थहानि सहने की अक्षमता और अपने व्यवसाय कौशल पर अविश्वास तथा भीरु पंडित में मान-हानि सहने की अक्षमता और अपने विद्या-बुद्धि-बल पर अविश्वास निहित है। एक ही प्रकार की भीरुता ऐसी दिखाई पड़ती है जिसकी प्रशंसा होती है। वह धर्म-भीरुता है। पर हम तो उसे भी कोई बड़ी प्रशंसा की बात नहीं समझते। धर्म से डरनेवालों की अपेक्षा धर्म की ओर आकर्षित होनेवाले हमें अधिक धन्य जान पड़ते हैं। जो किसी बुराई से यही समझकर पीछे हटते हैं कि उसके करने से अधर्म होगा, उसकी अपेक्षा वे कहीं श्रेष्ठ हैं जिन्हें बुराई अच्छी ही नहीं लगती।
स्त्रियों की भीरुता तो उनकी लज्जा के समान ही, किसके मनोरंजन की वस्तु रही है?
(a) साधुओं
(b) राजभोगियों
(c) रसिकों
(d) क्षत्रियों
8. निम्नलिखित प्रश्नों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और प्रश्नों के उत्तर देने के लिए उचित विकल्प का चयन कीजिए।
किसी आती हुई आपदा की भावना या दुख के कारण के साक्षात्कार से जो एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्तंभ-कारक मनोविकार होता है उसी को भय कहते हैं। क्रोध दुख के कारण पर प्रभाव डालने के लिए आकुल करता है और भय उसकी पहुँच से बाहर होने के लिए। क्रोध दुख के कारण के स्वरूपबोध के बिना नहीं होता। यदि दुख का कारण चेतन होगा और यह समझा जायगा कि उसने जान-बूझकर दुख पहुँचाया है, तभी क्रोध होगा। पर भय के लिए कारण का निर्दिष्ट होना जरूरी नहीं; इतना भर मालूम होना चाहिए कि दुख या हानि पहुँचेगी। यदि कोई ज्योतिषी किसी गँवार से कहे कि ”कल तुम्हारे हाथ-पाँव टूट जायँगे” तो उसे क्रोध न आएगा; भय होगा। पर उसी से यदि कोई दूसरा आकर कहे कि ”कल अमुक-अमुक तुम्हारे हाथ-पैर तोड़ देंगे” तो वह तुरंत त्योरी बदलकर कहेगा कि ”कौन हैं हाथ-पैर तोड़नेवाले? देख लूँगा।” भय का विषय दो रूपों में सामने आता है – असाध्य रूप में और साध्य रूप में। असाध्य विषय वह है जिसका किसी प्रयत्न द्वारा निवारण असंभव हो या असंभव समझ पड़े। साध्य विषय वह है जो प्रयत्न द्वारा दूर किया जा सकता हो। दो मनुष्य एक पहाड़ी नदी के किनारे बैठे या आनंद से बातचीत करते चले जा रहे थे। इतने में सामने शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी। यदि वे दोनों उठकर भागने, छिपने या पेड़ पर चढ़ने आदि का प्रयत्न करें तो बच सकते हैं। विषय के साध्य या असाध्य होने की धारणा परिस्थिति की विशेषता के अनुसार तो होती ही है पर बहुत कुछ मनुष्य की प्रकृति पर भी अवलंबित रहती है। क्लेश के कारण का ज्ञान होने पर उसकी अनिवार्यता का निश्चय अपनी विवशता या अक्षमता की अनुभूति के कारण होता है। यदि यह अनुभूति कठिनाइयों और आपत्तियों को दूर करने के अभ्यास या साहस के अभाव के कारण होती है, तो मनुष्य स्तंभित हो जाता है और उसके हाथ-पाँव नहीं हिल सकते। पर कड़े दिल का या साहसी आदमी पहले तो जल्दी डरता नहीं और डरता भी है तो सँभल कर अपने बचाव के उद्योग में लग जाता है। भय जब स्वभावगत हो जाता है तब कायरता या भीरुता कहलाता है और भारी दोष माना जाता है, विशेषतः पुरुषों में। स्त्रियों की भीरुता तो उनकी लज्जा के समान ही रसिकों के मनोरंजन की वस्तु रही है। पुरुषों की भीरुता की पूरी निंदा होती है। ऐसा जान पड़ता है कि बहुत पुराने जमाने से पुरुषों ने न डरने का ठेका ले रक्खा है। भीरुता के संयोजक अवयवों में क्लेश सहने की आवश्यकता और अपनी शक्ति का अविश्वास प्रधान है। शत्रु का सामना करने से भागने का अभिप्राय यही होता है कि भागनेवाला शारीरिक पीड़ा नहीं सह सकता तभी अपनी शक्ति के द्वारा उस पीड़ा से अपनी रक्षा का विश्वास नहीं रखता। यह तो बहुत पुरानी चाल की भीरुता हुई। जीवन के और अनेक व्यापारों में भी भीरुता दिखाई देती है। अर्थहानि के भय से बहुत से व्यापारी कभी-कभी किसी विशेष व्यवसाय में हाथ नहीं डालते, परास्त होने के भय से बहुत से पंडित कभी-कभी शास्त्रार्थ से मुँह चुराते हैं। इस प्रकार की भीरुता की तह में सहन करने की अक्षमता और अपनी शक्ति का अविश्वास छिपा रहता है। भीरु व्यापारी में अर्थहानि सहने की अक्षमता और अपने व्यवसाय कौशल पर अविश्वास तथा भीरु पंडित में मान-हानि सहने की अक्षमता और अपने विद्या-बुद्धि-बल पर अविश्वास निहित है। एक ही प्रकार की भीरुता ऐसी दिखाई पड़ती है जिसकी प्रशंसा होती है। वह धर्म-भीरुता है। पर हम तो उसे भी कोई बड़ी प्रशंसा की बात नहीं समझते। धर्म से डरनेवालों की अपेक्षा धर्म की ओर आकर्षित होनेवाले हमें अधिक धन्य जान पड़ते हैं। जो किसी बुराई से यही समझकर पीछे हटते हैं कि उसके करने से अधर्म होगा, उसकी अपेक्षा वे कहीं श्रेष्ठ हैं जिन्हें बुराई अच्छी ही नहीं लगती।
गद्यांश के अनुसार, शत्रु का सामना करने से भागनेवाला कौन सी पीड़ा नहीं सह सकता है?
(a) शारीरिक पीड़ा
(b) मानसिक पीड़ा
(c) आर्थिक पीड़ा
(d) ईर्ष्या पीड़ा
9. निम्नलिखित प्रश्नों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और प्रश्नों के उत्तर देने के लिए उचित विकल्प का चयन कीजिए।
किसी आती हुई आपदा की भावना या दुख के कारण के साक्षात्कार से जो एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्तंभ-कारक मनोविकार होता है उसी को भय कहते हैं। क्रोध दुख के कारण पर प्रभाव डालने के लिए आकुल करता है और भय उसकी पहुँच से बाहर होने के लिए। क्रोध दुख के कारण के स्वरूपबोध के बिना नहीं होता। यदि दुख का कारण चेतन होगा और यह समझा जायगा कि उसने जान-बूझकर दुख पहुँचाया है, तभी क्रोध होगा। पर भय के लिए कारण का निर्दिष्ट होना जरूरी नहीं; इतना भर मालूम होना चाहिए कि दुख या हानि पहुँचेगी। यदि कोई ज्योतिषी किसी गँवार से कहे कि ”कल तुम्हारे हाथ-पाँव टूट जायँगे” तो उसे क्रोध न आएगा; भय होगा। पर उसी से यदि कोई दूसरा आकर कहे कि ”कल अमुक-अमुक तुम्हारे हाथ-पैर तोड़ देंगे” तो वह तुरंत त्योरी बदलकर कहेगा कि ”कौन हैं हाथ-पैर तोड़नेवाले? देख लूँगा।” भय का विषय दो रूपों में सामने आता है – असाध्य रूप में और साध्य रूप में। असाध्य विषय वह है जिसका किसी प्रयत्न द्वारा निवारण असंभव हो या असंभव समझ पड़े। साध्य विषय वह है जो प्रयत्न द्वारा दूर किया जा सकता हो। दो मनुष्य एक पहाड़ी नदी के किनारे बैठे या आनंद से बातचीत करते चले जा रहे थे। इतने में सामने शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी। यदि वे दोनों उठकर भागने, छिपने या पेड़ पर चढ़ने आदि का प्रयत्न करें तो बच सकते हैं। विषय के साध्य या असाध्य होने की धारणा परिस्थिति की विशेषता के अनुसार तो होती ही है पर बहुत कुछ मनुष्य की प्रकृति पर भी अवलंबित रहती है। क्लेश के कारण का ज्ञान होने पर उसकी अनिवार्यता का निश्चय अपनी विवशता या अक्षमता की अनुभूति के कारण होता है। यदि यह अनुभूति कठिनाइयों और आपत्तियों को दूर करने के अभ्यास या साहस के अभाव के कारण होती है, तो मनुष्य स्तंभित हो जाता है और उसके हाथ-पाँव नहीं हिल सकते। पर कड़े दिल का या साहसी आदमी पहले तो जल्दी डरता नहीं और डरता भी है तो सँभल कर अपने बचाव के उद्योग में लग जाता है। भय जब स्वभावगत हो जाता है तब कायरता या भीरुता कहलाता है और भारी दोष माना जाता है, विशेषतः पुरुषों में। स्त्रियों की भीरुता तो उनकी लज्जा के समान ही रसिकों के मनोरंजन की वस्तु रही है। पुरुषों की भीरुता की पूरी निंदा होती है। ऐसा जान पड़ता है कि बहुत पुराने जमाने से पुरुषों ने न डरने का ठेका ले रक्खा है। भीरुता के संयोजक अवयवों में क्लेश सहने की आवश्यकता और अपनी शक्ति का अविश्वास प्रधान है। शत्रु का सामना करने से भागने का अभिप्राय यही होता है कि भागनेवाला शारीरिक पीड़ा नहीं सह सकता तभी अपनी शक्ति के द्वारा उस पीड़ा से अपनी रक्षा का विश्वास नहीं रखता। यह तो बहुत पुरानी चाल की भीरुता हुई। जीवन के और अनेक व्यापारों में भी भीरुता दिखाई देती है। अर्थहानि के भय से बहुत से व्यापारी कभी-कभी किसी विशेष व्यवसाय में हाथ नहीं डालते, परास्त होने के भय से बहुत से पंडित कभी-कभी शास्त्रार्थ से मुँह चुराते हैं। इस प्रकार की भीरुता की तह में सहन करने की अक्षमता और अपनी शक्ति का अविश्वास छिपा रहता है। भीरु व्यापारी में अर्थहानि सहने की अक्षमता और अपने व्यवसाय कौशल पर अविश्वास तथा भीरु पंडित में मान-हानि सहने की अक्षमता और अपने विद्या-बुद्धि-बल पर अविश्वास निहित है। एक ही प्रकार की भीरुता ऐसी दिखाई पड़ती है जिसकी प्रशंसा होती है। वह धर्म-भीरुता है। पर हम तो उसे भी कोई बड़ी प्रशंसा की बात नहीं समझते। धर्म से डरनेवालों की अपेक्षा धर्म की ओर आकर्षित होनेवाले हमें अधिक धन्य जान पड़ते हैं। जो किसी बुराई से यही समझकर पीछे हटते हैं कि उसके करने से अधर्म होगा, उसकी अपेक्षा वे कहीं श्रेष्ठ हैं जिन्हें बुराई अच्छी ही नहीं लगती।
गद्यांश के अनुसार, किस प्रकार की भीरुता ऐसी दिखाई पड़ती है, जिसकी प्रशंसा होती है?
(a) युद्ध-भीरुता
(b) राजनीतिक-भीरुता
(c) धर्म-भीरुता
(d) स्त्री-भीरुता
10. निम्नलिखित प्रश्नों को ध्यानपूर्वक पढ़िए और प्रश्नों के उत्तर देने के लिए उचित विकल्प का चयन कीजिए।
किसी आती हुई आपदा की भावना या दुख के कारण के साक्षात्कार से जो एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्तंभ-कारक मनोविकार होता है उसी को भय कहते हैं। क्रोध दुख के कारण पर प्रभाव डालने के लिए आकुल करता है और भय उसकी पहुँच से बाहर होने के लिए। क्रोध दुख के कारण के स्वरूपबोध के बिना नहीं होता। यदि दुख का कारण चेतन होगा और यह समझा जायगा कि उसने जान-बूझकर दुख पहुँचाया है, तभी क्रोध होगा। पर भय के लिए कारण का निर्दिष्ट होना जरूरी नहीं; इतना भर मालूम होना चाहिए कि दुख या हानि पहुँचेगी। यदि कोई ज्योतिषी किसी गँवार से कहे कि ”कल तुम्हारे हाथ-पाँव टूट जायँगे” तो उसे क्रोध न आएगा; भय होगा। पर उसी से यदि कोई दूसरा आकर कहे कि ”कल अमुक-अमुक तुम्हारे हाथ-पैर तोड़ देंगे” तो वह तुरंत त्योरी बदलकर कहेगा कि ”कौन हैं हाथ-पैर तोड़नेवाले? देख लूँगा।” भय का विषय दो रूपों में सामने आता है – असाध्य रूप में और साध्य रूप में। असाध्य विषय वह है जिसका किसी प्रयत्न द्वारा निवारण असंभव हो या असंभव समझ पड़े। साध्य विषय वह है जो प्रयत्न द्वारा दूर किया जा सकता हो। दो मनुष्य एक पहाड़ी नदी के किनारे बैठे या आनंद से बातचीत करते चले जा रहे थे। इतने में सामने शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी। यदि वे दोनों उठकर भागने, छिपने या पेड़ पर चढ़ने आदि का प्रयत्न करें तो बच सकते हैं। विषय के साध्य या असाध्य होने की धारणा परिस्थिति की विशेषता के अनुसार तो होती ही है पर बहुत कुछ मनुष्य की प्रकृति पर भी अवलंबित रहती है। क्लेश के कारण का ज्ञान होने पर उसकी अनिवार्यता का निश्चय अपनी विवशता या अक्षमता की अनुभूति के कारण होता है। यदि यह अनुभूति कठिनाइयों और आपत्तियों को दूर करने के अभ्यास या साहस के अभाव के कारण होती है, तो मनुष्य स्तंभित हो जाता है और उसके हाथ-पाँव नहीं हिल सकते। पर कड़े दिल का या साहसी आदमी पहले तो जल्दी डरता नहीं और डरता भी है तो सँभल कर अपने बचाव के उद्योग में लग जाता है। भय जब स्वभावगत हो जाता है तब कायरता या भीरुता कहलाता है और भारी दोष माना जाता है, विशेषतः पुरुषों में। स्त्रियों की भीरुता तो उनकी लज्जा के समान ही रसिकों के मनोरंजन की वस्तु रही है। पुरुषों की भीरुता की पूरी निंदा होती है। ऐसा जान पड़ता है कि बहुत पुराने जमाने से पुरुषों ने न डरने का ठेका ले रक्खा है। भीरुता के संयोजक अवयवों में क्लेश सहने की आवश्यकता और अपनी शक्ति का अविश्वास प्रधान है। शत्रु का सामना करने से भागने का अभिप्राय यही होता है कि भागनेवाला शारीरिक पीड़ा नहीं सह सकता तभी अपनी शक्ति के द्वारा उस पीड़ा से अपनी रक्षा का विश्वास नहीं रखता। यह तो बहुत पुरानी चाल की भीरुता हुई। जीवन के और अनेक व्यापारों में भी भीरुता दिखाई देती है। अर्थहानि के भय से बहुत से व्यापारी कभी-कभी किसी विशेष व्यवसाय में हाथ नहीं डालते, परास्त होने के भय से बहुत से पंडित कभी-कभी शास्त्रार्थ से मुँह चुराते हैं। इस प्रकार की भीरुता की तह में सहन करने की अक्षमता और अपनी शक्ति का अविश्वास छिपा रहता है। भीरु व्यापारी में अर्थहानि सहने की अक्षमता और अपने व्यवसाय कौशल पर अविश्वास तथा भीरु पंडित में मान-हानि सहने की अक्षमता और अपने विद्या-बुद्धि-बल पर अविश्वास निहित है। एक ही प्रकार की भीरुता ऐसी दिखाई पड़ती है जिसकी प्रशंसा होती है। वह धर्म-भीरुता है। पर हम तो उसे भी कोई बड़ी प्रशंसा की बात नहीं समझते। धर्म से डरनेवालों की अपेक्षा धर्म की ओर आकर्षित होनेवाले हमें अधिक धन्य जान पड़ते हैं। जो किसी बुराई से यही समझकर पीछे हटते हैं कि उसके करने से अधर्म होगा, उसकी अपेक्षा वे कहीं श्रेष्ठ हैं जिन्हें बुराई अच्छी ही नहीं लगती।
जो किसी बुराई से यही समझकर पीछे हटते हैं कि उसके करने से अधर्म होगा, उसकी अपेक्षा कौन से व्यक्ति श्रेष्ठ हैं?
(a) जो बुराई से नहीं बचते हैं।
(b) जो बुराई से बचते हैं।
(c) जिन्हें बुराई अच्छी लगती है।
(d) जिन्हें बुराई अच्छी ही नहीं लगती।
11. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उससे संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
विषुवत रेखा का वासी जो, जीता है नित हाँफ-हाँफ कर रखता है अनुराग अलौकिक वह भी अपनी मातृभूमि पर ध्रुववासी, जो हिम में तम में जी लेता है काँप-काँपकर वह भी अपनी मातृभूमि पर, कर देता है प्राण निछावर तुम तो हे प्रिय बंधू! स्वर्ग सी, सुखद सकल विभवों की आकर, धरा शिरोमणि मातृभूमि में, धन्य हुए जीवन पाकर तुम जिसका जल-अन्न ग्रहण कर, बड़े हुए लेकर इसका रज, तन रहते कैसे तल दोगे उसको, हे वीरों के वंशज।। जब तक साध एक भी दम हो हो अवशिष्ट एक भी धड़कन रखो आत्म-गौरव से ऊँची पलकें ऊँचा सिर ऊँचा मन
काव्यांश का मूल भाव क्या है?
(a) भारत-भूमि का गुणगान
(b) मातृभूमि से लगाव रखते हुए स्वाभिमान से जीना
(c) संघर्ष करने का आनंद
(d) a और b दोनों
12. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उससे संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
विषुवत रेखा का वासी जो, जीता है नित हाँफ-हाँफ कर रखता है अनुराग अलौकिक वह भी अपनी मातृभूमि पर ध्रुववासी, जो हिम में तम में जी लेता है काँप-काँपकर वह भी अपनी मातृभूमि पर, कर देता है प्राण निछावर तुम तो हे प्रिय बंधू! स्वर्ग सी, सुखद सकल विभवों की आकर, धरा शिरोमणि मातृभूमि में, धन्य हुए जीवन पाकर तुम जिसका जल-अन्न ग्रहण कर, बड़े हुए लेकर इसका रज, तन रहते कैसे तल दोगे उसको, हे वीरों के वंशज।। जब तक साध एक भी दम हो हो अवशिष्ट एक भी धड़कन रखो आत्म-गौरव से ऊँची पलकें ऊँचा सिर ऊँचा मन
उपर्युक्त काव्यांश में ‘वीरों का वंशज किसे कहा गया है?
(a) विदेशियों को
(b) भारतियों को
(c) श्रमिकों को
(d) आंचलिकता को
13. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उससे संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
विषुवत रेखा का वासी जो, जीता है नित हाँफ-हाँफ कर रखता है अनुराग अलौकिक वह भी अपनी मातृभूमि पर ध्रुववासी, जो हिम में तम में जी लेता है काँप-काँपकर वह भी अपनी मातृभूमि पर, कर देता है प्राण निछावर तुम तो हे प्रिय बंधू! स्वर्ग सी, सुखद सकल विभवों की आकर, धरा शिरोमणि मातृभूमि में, धन्य हुए जीवन पाकर तुम जिसका जल-अन्न ग्रहण कर, बड़े हुए लेकर इसका रज, तन रहते कैसे तल दोगे उसको, हे वीरों के वंशज।। जब तक साध एक भी दम हो हो अवशिष्ट एक भी धड़कन रखो आत्म-गौरव से ऊँची पलकें ऊँचा सिर ऊँचा मन
’तुम तो हे प्रिय बंधू! स्वर्ग सी’ में कौन सा अलंकार है?
(a) उत्प्रेक्षा
(b) यमक
(c) उपमा
(d) रूपक
14. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उससे संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
विषुवत रेखा का वासी जो, जीता है नित हाँफ-हाँफ कर रखता है अनुराग अलौकिक वह भी अपनी मातृभूमि पर ध्रुववासी, जो हिम में तम में जी लेता है काँप-काँपकर वह भी अपनी मातृभूमि पर, कर देता है प्राण निछावर तुम तो हे प्रिय बंधू! स्वर्ग सी, सुखद सकल विभवों की आकर, धरा शिरोमणि मातृभूमि में, धन्य हुए जीवन पाकर तुम जिसका जल-अन्न ग्रहण कर, बड़े हुए लेकर इसका रज, तन रहते कैसे तल दोगे उसको, हे वीरों के वंशज।। जब तक साध एक भी दम हो हो अवशिष्ट एक भी धड़कन रखो आत्म-गौरव से ऊँची पलकें ऊँचा सिर ऊँचा मन
काव्यांश के अनुसार मातृभूमि की विशेषता क्या है?
(a) स्वर्ग के समान सुंदर है
(b) सभी सुखों का भंडार है
(c) धरा की शिरोमणि है
(d) उपर्युक्त सभी
15. निम्नलिखित काव्यांश को ध्यानपूर्वक पढ़िए और उससे संबंधित प्रश्नों के उत्तर दीजिए।
विषुवत रेखा का वासी जो, जीता है नित हाँफ-हाँफ कर रखता है अनुराग अलौकिक वह भी अपनी मातृभूमि पर ध्रुववासी, जो हिम में तम में जी लेता है काँप-काँपकर वह भी अपनी मातृभूमि पर, कर देता है प्राण निछावर तुम तो हे प्रिय बंधू! स्वर्ग सी, सुखद सकल विभवों की आकर, धरा शिरोमणि मातृभूमि में, धन्य हुए जीवन पाकर तुम जिसका जल-अन्न ग्रहण कर, बड़े हुए लेकर इसका रज, तन रहते कैसे तल दोगे उसको, हे वीरों के वंशज।। जब तक साध एक भी दम हो हो अवशिष्ट एक भी धड़कन रखो आत्म-गौरव से ऊँची पलकें ऊँचा सिर ऊँचा मन
काव्यांश में प्रयुक्त शब्द ‘मातृभूमि’ में कौन सा समास है?
(a) द्वंद्व समास
(b) कर्मधारय समास
(c) बहुव्रीहि समास
(d) तत्पुरुष समास
16. ‘भाषा-शिक्षण’ के सन्दर्भ में कौन-सा कथन सही नहीं है?
(a) बच्चे अपने द्वारा बनाए गए भाषा-नियमों मे विस्तार एवं परिवर्तन करते हैं
(b) समृद्ध भाषा-परिवेश भाषा अर्जित करने में सहायक होता है
(c) बच्चों की मातृभाषा का कक्षा में प्रयोग नहीं होना चाहिए
(d) बच्चे भाषा की जटिल संरचनाओं के साथ विद्यालय आते हैं
17. समावेशी-शिक्षा के सन्दर्भ में भाषा-शिक्षण के लिए अनिवार्य है
(a) विभिन्न प्रकार की गतिविधियों का उपयोग
(b) व्याकरणिक संकल्पनाओं का अधिकाधिक अभ्यास
(c) एकांकी-शिक्षण में सभी की भागीदारी
(d) भाषा-कौशलों का उपयुक्त अभ्यास
18. भाषा का पोर्टफोलियो हो सकता है
(a) प्रपत्रों का आकर्षक संग्रह
(b) परियोजना कार्यों का संगठित संग्रह
(c) प्रश्नानुसार लिखित उत्तरों का संग्रह
(d) प्रपत्रों का संगठित और क्रमबद्ध संग्रह
19. आकलन एक सतत् प्रक्रिया है। इसका प्राथमिक उद्देश्य है
(a) प्रविधि, पाठ्य-पुस्तक, शिक्षक और विद्यार्थी में सुधार का अवलोकन
(b) प्रविधि, सामग्री, शिक्षक और कक्षाकार्य निष्पादन में सुधार की प्रतिपुष्टि
(c) विषय-वस्तु, शिक्षण, पाठ्य सामग्री और प्रशिक्षण में सुधार की प्रतिपुष्टि
(d) विषय-वस्तु, पाठ्य-पुस्तक, शिक्षक और कक्षा में सुधार का समर्थन
20. ‘‘पाठ्य-पुस्तक शिक्षण अभिप्रायों के लिए व्यस्ािित प्रजातीय चिन्तन का एक अभिलेख है।’’ यह कथन है
(a) क्रो एवं क्रो का
(b) बेकन का
(c) ब्लेयर का
(d) स्किनर का
21. बालोद्यान शिक्षण विधि के जनक हैं
(a) जाॅन डीवी
(b) किलपैट्रिक
(c) मॅण्टेसरी
(d) फ्राॅबेल
22. स्कूल-समुदाय की , स्कूल-शिक्षक की, शिक्षक-शिक्षक की, शिक्षक-बच्चों की, शिक्षक-अभिभावक की ………… सफल एवं आदर्श अभिगम का मुख्य आधार है
(a) उपयोगिता
(b) सहभागिता
(c) अभिप्रेरणा
(d) योजना
23. कोई छात्र अपने घर पर स्वंय ही कम्प्यूट चला रहा है, तब किस रूप में कम्प्यूटर कार्य होगा?
(a) मशीन के रूप में
(b) शिक्षक के रूप में
(c) मशीन एवं शिक्षक दोनों के रूप में
(d) उपरोक्त में से नहीं
24. अध्यापक को कक्षा में सदैव………..भाषा का प्रयोग करना चाहिए।
(a) मातृभाषा
(b) मानक
(c) किसी भी भाषा
(d) अपभाषा
25. पढ़ाया गया विषय छात्रों को कितना समझ में आया, यह किस सिद्धांत के माध्यम से पता चलता है ?
(a) बाल-केन्द्रिता के सिद्धांत से
(b) शिक्षण सूत्र के सिद्धांत से
(c) बहुमुखी प्रयास से
(d) अभ्यास सिद्धांत से
26. दिए गए विकल्पों में से किस आधार पर मूल्यांकन की प्रविधि का वर्गीकरण किया जाता है?
(a) क्रियात्मक तथा बोधात्मक
(b) क्रियात्मक तथा गुणात्मक
(c) परिणात्मक तथा बोधात्मक
(d) गुणात्मक तथा परिमाणात्मक
27. निदानात्मक परीक्षण हेतु हिन्दी शिक्षक किस विधि का प्रयोग करता है ?
(a) निरीक्षण विधि
(b) उपचारात्मक शिक्षण विधि
(c) क्रियात्मक अनुसंधान का
(d) इनमें से कोई नहीं।
28. रटने की आदत का सबसे बड़ा नुकसान है-
(a) व्यक्तित्व – विकास रूक जाता है
(b) मौलिक चिन्तन में बाधा पड़ती है
(c) बुद्धि कुंठित होती है
(d) पाठ्य-पुस्तकों के सिवा कुछ और पढने की इच्छा नहीं होती
29. उच्च प्राथमिक स्तर पर हिन्दी भाषा – विकास के लिए कौन – सी गतिविधि उपयोगी नहीं हो सकती?
(a) पढ़ी गई कहानियों का समूह में नाट्य – रूपांतरण
(b) विज्ञापनों, पोस्टरों, साइनबोर्ड और भाषा के अन्य उपयोगों का विश्लेषण करना
(c) मुहावरों के अर्थ लिखकर वाक्य बनाना।
(d) सूचना, डायरी – लेखन, विज्ञापन, लेखक आदि का कार्य करवाना।
30. बच्चों का भाषायी विकास सर्वाधिक रूप से निर्भर करता है
(a) पाठ्यपुस्तक पर
(b) समृद्ध भाषा – परिवेश पर
(c) आकलन की औपचारिकता पर
(d) संचार माध्यमों पर
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